अपामार्जन स्तोत्र
अपामार्जन स्तोत्र भगवान् विष्णु का स्तोत्र है जिसका प्रयोग विषरोगादि के निवारण के लिए किया जाता है। इस स्तोत्र के नित्य गायन या पाठन से सभी प्रकार के रोग शरीर से दूर रहते हैं, तथा इसका प्रयोग रोगी व्यक्ति के मार्जन द्वारा रोग निराकरण में किया जाता है।
इस स्तोत्र का उल्लेख भारतीय धर्मग्रन्थों में दो बार प्राप्त हुआ है --- प्रथम विष्णुधर्मोत्तरपुराण में तथा द्वितीय पद्मपुराण में ६वें स्कन्द का ७९वाँ अध्याय। जहाँ विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पुलत्स्य मुनि ने दाल्भ्य के लिए कहा है वहीं पद्मपुराण में इसे भगवान् शिव ने माता पार्वती को सुनाया है।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पठित अपामार्जन स्तोत्र
श्रीमान्वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी।
वेदान्ताचार्यवर्यो मे सन्निधत्तां सदाहृदि॥
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥
श्रीदाल्भ्य उवाच –
भगवन् प्राणिनः सर्वे विषरोगाद्युपद्रवैः।
दुष्टग्रहाभिघातैश्च सर्वकालमुपद्रुताः॥०१॥
आभिचारिककृत्याभिः स्पर्थरोगैश्च दारुणैः।
सदा संपीड्यमानस्तु तिष्ठन्ति मुनिसत्तम्॥०२॥
केन कर्मविपाकेन विषरोगाद्युपद्रवाः।
न भवन्ति नृणां तन्मे यथावद्वक्तुमर्हसि॥०३॥
श्री पुलत्स्य उवाच –
वृतोपवासैर्यैविष्णुर्नान्यजन्मनि तोषितः।
ते नरा मुनिशार्दूल विषरोगादिभागिनः॥०४॥
यैर्न तत्प्रवणं चित्तं सर्वदैव नरैः कृतम्।
विषज्वरग्रहाणां ते मनुष्याः दाल्भ्य भागिनः॥०५॥
आरोग्यं परमरुधिं मनसा यध्य धिच्छधि।
थाधन्पोथ्य संधिग्धं परथरा अच्युथ थोष कृतः॥ ०६॥
नाधीन प्रप्नोथि न व्याधीन विष ग्रहं न इभन्धनं।
कृत्य स्परस भयं व अपि थोषिथे मधुसूदने॥ ०७॥
सर्व दुख समास्थास्य सोउम्य स्थस्य सदा ग्रहा।
देवानामपि थुस्थ्यै स थुष्टो यस्य जनार्धन॥ ०८॥
य समा सर्व भूथेषु यदा आत्मनि थधा परे।
उपवाधि धानेन थोषिथे मधुसुधने॥ ०९॥
थोशकस्थ जयन्थे नरा पूर्ण मनोरधा।
अरोगा सुखिनो भोगान भोक्थारो मुनि सथाम॥ १०॥
न थेशां शत्रवो नैव स्परस रोघाधि भागिन।
ग्रह रोगधिकं वापि पाप कार्यं न जयथे॥ ११॥
अव्यःअथानि कृष्णस्य चक्रधीन आयुधानि च।
रक्षन्थि सकला आपद्भ्यो येन विष्णुर उपसिथ॥ १२॥
श्री धलभ्ह्य उवाच –
अनारधिथ गोविन्द, ये नरा दुख बगिन।
थेशां दुख अभि भूथानां यत् कर्थव्यं धयलुभि॥ १३॥
पस्यब्धि सर्व भूथस्थं वासुदेवं महा मुने।
समा दृष्टि बी रीसेसं थन मम ब्रूह्य सेशत्र्ह॥ १४॥
पुलस्थ्य उवाच –
स्रोथु कामो असि वै धल्भ्य स्रुनुश्व सुसमहिथ
अपारम जनकं वक्ष्ये न्यास पूर्वं इधं परम्।
प्रणवं फ नमो हग्वथे वासुदेवाय – सर्व क्लेसप हन्थ्रे नाम॥ १५॥
अध ध्यानं प्रवक्ष्यामि सर्व पाप प्रनासनम्।
वराह रूपिणं देवं संस्मरन अर्चयेतः जपेतः॥ १६॥
जलोउघ धाम्ना स चराचर धरा विषाण कोट्य अखिल विस्व रूपिण।
समुद्ध्रुथा येन वराह रूपिणा स मय स्वयम्भुर् भग्वन् प्रसीदथु॥ १७॥
चञ्चत चन्ध्रर्ध दंष्ट्रं स्फुरद उरु राधानां विध्युतः ध्योथ जिह्वम्
गर्जत पर्जन्य नाधम स्फुर्थार विरुचिं चक्षुर क्षुध्र रोउध्रम्।
थ्रस्थ साह स्थिथि यूढं ज्वलद् अनल सता केसरोदः बस मानं
रक्षो रक्थाभिषिक्थं प्रहराथि दुरिथं ध्ययथां नरसिंहं॥ १८॥
अथि विपुल सुगथ्रं रुक्म पथ्रस्त्हस मननं
स ललिथ धधि खण्डं, पाणिना दक्षिणेन।
कलस ममृथ पूर्णं वमःअस्थे दधानं
थारथि सकल दुखं वामने भवयेतः य॥ १९॥
विष्णुं भास्वतः किरीदङ्ग दवल यगला कल्पज्ज्वलन्गम्
श्रेणी भूषा सुवक्षो मणि मकुट महा कुण्डलैर मन्दिथाङ्गम्।
हस्थ्ध्यस्चङ्ग चकरंभुजगध ममलं पीठ कोउसेयमासा
विध्योथातः भास मुध्यद्धिना कर सदृशं पद्म संस्थं नमामि॥ २०॥
कल्पन्थर्क प्रकाशं त्रिभुवन मखिलं थेजसा पूरयन्थं
रक्थाक्षं पिङ्ग केसम रिपुकुल दमनं भीम दंष्ट्र अत्तःअसम्।
शङ्कां चरं, गदब्जं प्रधु थर मुसलं सूल पसन्गुसग्नीन
भिब्रनं धोर्भिरध्यं मनसी मुर रिपुं भवाय चक्र संज्ञां॥ २१॥
प्रणवं नाम, परमार्थाय पुरुषाय महात्मने।
अरूप बहु रूपाय व्यापिने पर्मथ्मने॥ २२॥
निष्कल्माशाय, शुध्य, ध्यान योग रथ्य च।
नमस्कृथ्य प्रवक्ष्यामि यत्र सिधयथु मय वच॥ २३॥
नारायणाय शुध्य विस्वेसेस्वरय च।
अच्य्य्थनन्द गोविन्द, पद्मनाभाय सोउरुधे॥ २४॥
हृस्जिकेसया कूर्माय माधवाय अच्युथाय च।
दामोदराय देवाय अनन्थय महात्मने॥ २५॥
प्रध्य्मुनाय निरुध्य पुरुशोथाम थेय नाम।
य़ोगीस्वरय गुह्याय गूदाय परमथ्मने॥ २६॥
भक्था प्रियाय देवाय विश्वक्सेनय सर्न्गिने।
अदोक्षजय दक्षाय मथ्स्यय मधुःअर्रिने॥ २७॥
वराहाय नृसिंहाय वामनाय महात्मने।
वराहेस, नृसिम्हेस, वमनेस, त्रिविक्रम॥ २८॥
हयग्रीवेस सर्वेस हृषिकेस हरा अशुभम्।
अपरजिथ चक्रध्यै चतुर्भि परमद्भुत्है॥ २९॥
अखन्दिथ्नुभवै सर्व दुष्ट हारो भव।
हरा अमुकस्य दुरिथं दुष्क्रुथं दुरुपोषिथं॥ ३०॥
मृत्यु बन्धर्थि भय धाम अरिष्टस्य च यतः फलम्।
अरमध्वन सहिथं प्रयुक्थं चा अभिचरिकं॥ ३१॥
घर स्परस महा रोगान प्रयुक्थान थ्वरत हर।
प्राणं फ नमो वासुदेवाय नाम कृष्णाय सरन्गिने॥ ३२॥
नाम पुष्कर नेथ्राय केसवयधि चक्रिणे।
नाम कमल किञ्जल्क पीठ निर्मल वाससे॥ ३३॥
महा हवरिपुस्थाकन्ध गृष्ट चक्राय चक्रिणे।
दंष्ट्रोग्रेण क्षिथिध्रुथे त्रयी मुर्थ्य माथे नाम॥ ३४॥
महा यज्ञ वराहाय सेष भोगो उपसयिने।
थाप्थ हतक केसन्थ ज्वलथ् पावक लोचन॥ ३५॥
वज्रयुधा नख स्परस दिव्य सिंह नमोस्थुथे।
कस्यप्पय अथि ह्रुस्वय रिक यजु समा मुर्थय॥ ३६॥
थुभ्यं वामन रूपाय क्रमाथे गां नमो नाम।
वराह सेष दुष्टानि सर्व पाप फलानि वै॥ ३७॥
मर्ध मर्ध महा दंष्ट्र मर्ध मर्ध च ततः फलम्।
नरसिंह करालस्य दन्थ प्रोज्ज्वलानन॥ ३८॥
भन्ज्ह भन्ज्ह निनधेन दुष्तान्यस्या आर्थि नरसन।
रग यजुर समा रूपाभि वाग्भि वामन रूप दृक्॥ ३९॥
प्रसमं सर्व दुष्टानां नयथ्वस्य जनार्धन।
कोउभेरं थेय मुखं रथ्रौ सोउम्यं मुखान दिव॥ ४०॥
ज्ञ्वरथ् मृत्यु भयं घोरं विषं नासयथे ज्वरम्।
त्रिपद भस्म प्रहरण त्रिसिर रक्था लोचन॥ ४१॥
स मय प्रीथ सुखं दध्यातः सर्वमय पथि ज्वर
आध्यन्थवन्थ कवय पुराना सं मर्गवन्थो ह्यनुसासिथरा।
सर्व ज्वरान् ज्ञान्थु मंमनिरुधा प्रध्युम्न, संकर्षण वासुदेव॥ ४२॥
ईय्कहिकम्, ध्व्यहिकम् च तधा त्रि दिवस ज्वरम्।
चथुर्थिकं तधा अथ्युग्रं सथाथ ज्वरम्॥ ४३॥
दोशोथं, संनिपथोथं थादिव आगन्थुकं ज्वरम्।
शमं नया असु गोविन्द छिन्धि चिन्धिस्य वेदनां॥ ४४॥
नेत्र दुखं, शिरो दुखं, दुखं चोधर संभवम्।
अथि स्वसम् अनुच्वसम् परिथापं सवे पधुं॥ ४५॥
गूढ ग्रनङ्ग्रि रोगंस्च, कुक्षि रोगं तधा क्षयम्।
कामालधीं स्थाधा रोगान प्रेमेहास्चथि धरुणं॥ ४६॥
भगन्धरथि सारंस्च मुख रोगमवल्गुलिम्।
अस्मरिं मूथ्र कृच्रं च रोगं अन्यस्च धरुणं॥ ४७॥
ये वथ प्रभावा रोगा, ये च पिथ समुध्भव।
कप्होत भवास्च ये रोगा ये चान्य्ये संनिपथिक॥ ४८॥
आगन्थुकस्च येअ रोगा लूथाधि स्फतकोध्य।
सर्वे थेय प्रसमं यान्थु वासुदेव अपमर्जणतः॥ ४९॥
विलयं यन्थु थेय सर्वे विष्णोर उचरणेन च।
क्षयं गचन्थु चा सेशस्च क्रोनभिःअथा हरे॥ ५०॥
अच्युथनन्थ गोविन्द विष्णोर नारायनंरुथ।
रोगान मय नास्य असेषान आसु धन्वथारे, हरे॥ ५१॥
अच्युथनन्थ गोविन्द नमोचरण भेषजतः,
नस्यन्थि सकला रोगा सत्यं सत्यं वदंयं॥ ५२॥
सत्यं, सत्यं, पुन सत्यं, मुधथ्य भुज मुच्यथे,
वेदातः सस्थ्रं परम् नास्थि न दैवं केस्वतः परम्॥ ५३॥
स्थावरं, जङ्गमं चापि क्र्थिरिमं चापि यद विषं,
दन्थोदः भवं नखोध्भूथ मकस प्रभवं विषं॥ ५४॥
लूथाधि स्फोतकं चैव विषं अथ्यथ दुस्सहं,
शमं नयथु ततः सर्वं कीर्थिथोस्य जनार्धन॥ ५५॥
ग्रहान प्रेथ ग्रहान चैव थाध्हा वैनयिक ग्रहान,
वेतलंस्च पिसचंस्च ग़न्धर्वन् यक्ष राक्षसान॥ ५६॥
शाकिनी पूथनाध्यंस्च तधा वैनयिक ग्रहान,
मुख मन्दलिकान क्रूरान रेवथीन वृध रेवथीन॥ ५७॥
वृस्चिखखां ग्रहं उग्रान थधा मथ्रु गणान अपि,
बलस्य विष्णोर चार्थं हन्थु बल ग्रहानिमान॥ ५८॥
वृधानां ये ग्रहा केचित् येअ च बल ग्रहं क्वचिथ्,
नरसिंहस्य थेय द्रुश्त्व दग्धा येअ चापि योउवने॥ ५९॥
सता करल वदनो णरसिन्हो महाराव,
ग्रहान असेषान निसेषान करोथु जगथो हिथ॥ ६०॥
नरसिंह महासिंह ज्वला मलो ज्वललन,
ग्रहान असेषन निस्सेषान खाध खाध अग्नि लोचन॥ ६१॥
य़ेअ रोगा, य़ेअ महोथ्पदा, यद्विषम ये महोरगा,
यानि च क्रूर भूथानि ग्रहं पीदस्च धरुणा॥ ६२॥
सस्थ्र क्षाथे च येअ दोष ज्वाला कर्धम कादय,
यानि चान्यानि दुष्टानि प्राणि पीडा कराणि च॥ ६३॥
थानी सर्वाणि सर्वथमन परमथ्मन जनार्धन,
किन्चितः रूपं समास्थाय वासुदेवस्य नास्य॥ ६४॥
ख़्शिथ्व सुदर्शनम् चक्रं ज्ञ्वल मल्थि भीषणं,
सर्व दुष्टो उपसमानं कुरु देव वर अच्युथ॥ ६५॥
सुदर्शन महा चक्र गोविन्धस्य करयुधा,
थीष्ण पावक सङ्गस कोटि सूर्य समा प्रभा॥ ६६॥
त्रिलोक्य कर्थ थ्वम् दुष्ट दृप्थ धनव धारण,
थीष्ण धारा महा वेग छिन्धि छिन्धि महा ज्वरम्॥ ६७॥
छिन्धि पथं च लूथं च छिन्धि घोरं, महद्भयं,
कृमिं दहं च शूलं च विष ज्वलाम् च कर्धमन॥ ६८॥
सर्व दुष्टानि रक्षांसि क्षपया रीविभीषणा,
प्राच्यां प्रधीच्यं दिसि च दक्षिणो उथरयो स्थाधा॥ ६९॥
रक्ष्जां करोथु भगवन् बहु रूपी जनार्धन,
परमाथम यध विष्णु वेदन्थेश्व अभिधीयथे॥ ७०॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध विष्णु जगत्सर्वं स देवासुरा मानुषं॥ ७१॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध विश्नौ स्मृथे साध्या संक्षयं यन्थि पठका॥ ७२॥
थेन सत्येन सकलं दुष्तमस्य प्रसंयथु,
यध यग्नेस्वरो विष्णुर वेधन्थेस्वबिधीयथे॥ ७३॥
थेन सत्येन सकलं यन मयोक्थं थादस्थु ततः,
शथिरस्थु शिवं चास्त्हुःरिषिकेसया कीर्थणतः॥ ७४॥
वासुदेव सरेरोत्है कुसि समर्जिथं मया,
अपमर्जथु गोविन्दो नरो नारायनस्त्धा॥ ७५॥
ममास्थु सर्व दुखनां प्रसमो याचनधरे,
संथ समास्थ रोगस्थे ग्रहा सर्व विषाणि च॥ ७६॥
भूथानि सर्व प्रसंयन्थु संस्मृथे मधु सूदने,
येथातः समास्थ रोगेषु भूथ ग्रहं भयेष च॥ ७७॥
अपमर्जनकं शस्त्रं विष्णु नामभि मन्थ्रिथं,
येथे कुसा विष्णु सरीर संभवा जनर्धनोऽहं स्वयमेव चागथ,
हथं मया दुष्ट मसेशमस्य स्वस्थो भवथ्वेषो यधा वाचो हरि॥ ७८॥
शन्थिरस्थु शिवं चास्थु प्रनस्यथ्वसुखं च ततः,
श्र्वस्थ्यमस्थु शिवं चास्थु दुष्तमस्य प्रसंयथु॥ ७९॥
यदस्य दुरिथं किन्चितः ततः क्षिप्थं लवनर्णवे,
श्र्वस्थ्यमस्थु शिवं चास्थु हृषिकेसया कीर्थणतः॥ ८०॥
येथातः रोगधि पीदसु जन्थुनां हिथ मिचथा,
विष्णु भक्थेन कर्थव्व्य्य मप्मर्जनकं परम्॥ ८१॥
अनेन सर्व दुष्टानि प्रसमं यान्थ्य संसय,
सर्व भूथ हिथर्थाय कुर्यतः थास्मतः सदैव हि॥ ८२॥
कुर्यतः थास्मतः सदिव ह्यिं नाम इथि,
यिधं स्तोत्रं परम् पुण्यं सर्व व्याधि विनासनं,
विनास्य च रोगाणां अप मृत्यु जयाय च॥ ८३॥
इधं स्तोत्रं जपेतः संथ कुसि संमर्जयेतः सुचि,
व्याधय अपस्मार कुष्टधि पिसचो राग राक्षस॥ ८४॥
थस्य पर्स्व न गचन्थि स्तोत्रमेथथु य पदेतः,
वराहं, नारसिंहं च वामनं विष्णुमेव च,
समरन जपेदः इधं स्तोत्रं सर्व दुख उपसन्थये॥ ८५॥
इथि विष्णु धर्मोथार पुराने दाल्भ्य पुलस्थ्य संवधे,
अपमर्जन स तोत्रं संपूर्णं॥ ९१॥
पद्मपुराण में पठित अपामार्जन स्तोत्र
महादेव उवाच –
अथातः संप्रवक्ष्यामि अपामार्जनमुत्ततम्।
पुलस्त्येन यथोक्तं तु दालभ्याय महात्मने॥०१॥
सर्वेषां रोगदोषाणां नाशनं मङ्गलप्रदम्।
तत्तेऽहं तु प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं नगनन्दिनि॥०२॥
पार्वत्युवाच –
भगवन्प्राणिनः सर्वे बिषरोगाद्युपद्रवाः।
दुष्टग्रहाभिभूताश्च सर्वकाले ह्युपद्रुताः॥०३॥
अभिचारककृत्यादिबहुरोगैश्च दारुणैः।
न भवन्ति सुरश्रेष्ठ तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि॥०४॥
महादेव उवाच –
व्रतोपवासैर्नियमैर्बिष्णुर्वै तोषितस्तु यैः।
ते नरा नैव रोगार्ता जायन्ते नगनन्दिनि॥०५॥
यैः कृतं न व्रतं पुण्यं न दानं न तपस्तथा।
न तीर्थं देवपूजा च नान्नं दत्तं तु भूरिशः॥०६॥
अपामार्जन न्यास
महादेव उवाच –
तद्वक्ष्यामि सुरश्रेष्ठे समाहितमनाः शृणु।
रोगदोषाशुभहरं विद्विडापद्विनाशनम्॥१६॥
शिखायां श्रीधरं न्यस्य शिखाधः श्रीकरं तथा।
हृषीकेशं तु केशेषु मूर्ध्नि नारायणं परम्॥१७॥
ऊर्ध्वश्रोत्रे न्यसेद्विष्णुं ललाटे जलशायिनम्।
बिष्णुं वै भ्रुयुगे न्यस्य भ्रूमध्ये हरिमेव च॥१८॥
नरसिंहं नासिकाग्रे कर्णयोरर्णवेशयम्।
चक्षुषोः पुण्डरीकाक्षं तदधो भूधरं न्यसेत्॥१९॥
कपोलयोः कल्किनाथं वामनं कर्णमूलयोः।
शङ्खिनं शङ्खयोर्न्यस्य गोविन्दं वदने तथा॥२०॥
मुकुन्दं दन्तपङ्क्तौ तु जिह्वायां वाक्पतिं तथा।
रामं हनौ तु विन्यस्य कण्ठे वैकुण्ठमेव च॥२१॥
बलघ्नं बाहुमुलाधश्चांसयोः कंसघातिनम्।
अजं भुजद्वये न्यस्य शार्ङ्गपाणिं करद्वये॥२२॥
संकर्षणं कराङ्गुष्ठे गोपमङ्गुलिपङ्क्तिषु।
वक्षस्यधोक्षजं न्यस्य श्रीवत्सं तस्य मध्यतः॥२३॥
स्तनयोरनिरुद्धं च दामोदरमथोदरे।
पद्मनाभं तथा नाभौ नाभ्यधश्चापि केशवम्॥२४॥
मेढ्रे धराधरं देवं गुदे चैव गदाग्रजम्।
पीताम्बरधरं कट्यामूरुयुग्मे मधुद्विषम्॥२५॥
मुरद्विषं पिण्डकयोर्जानुयुग्मे जनार्दनम्।
फणीशं गुल्फयोर्न्यस्य क्रमयोश्च त्रिविक्रमम्॥२६॥
पादाङ्गुष्ठे श्रीपतिं च पादाधो धरणीधरम्।
रोमकूपेषु सर्वेषु बिष्वक्सेनं न्यसेद्बुधः॥२७॥
मत्स्यं मांसे तु विन्यस्य कूर्मं मेदसि विन्यसेत्।
वाराहं तु वसामध्ये सर्वास्थिषु तथाऽच्युतम्॥२८॥
द्विजप्रियं तु मज्जायां शुक्रे श्वेतपतिं तथा।
सर्वाङ्गे यज्ञपुरुषं परमात्मानमात्मनि॥ २९॥
एवं न्यासविधिं कृत्वा साक्षान्नारायणो भवेत्।
यावन्न व्याहरेत्किंचित्तावद्विष्णुमयः स्थितः॥ ३०॥
गृहीत्वा तु समूलाग्रान्कुशाञ्शुद्धान्समाहितः।
मार्जयेत्सर्वगात्राणि कुशाग्रैरिह शान्तिकृत्॥ ३१॥
बिष्णुभक्तो विशेषेण रोगग्रहबिषार्तिनः(र्दितः)।
बिषार्तानां रोगिणां च कुर्याच्छान्तिमिमां शुभाम्॥ ३२॥
जपेत्तत्र तु भो देवि सर्वरोगप्रणाशनम्।
ॐ नमः श्रीपरमार्थाय पुरुषाय महात्मने॥ ३३॥
अरूपबहुरूपाय व्यापिने परमात्मने।
वाराहं नारसिंहं च वामनं च सुखप्रदम्॥ ३४॥
ध्यात्वा कृत्वा नमो बिष्णोर्नामान्यङ्गेषु विन्यसेत्।
निष्कल्मषाय शुद्धाय व्याधिपापहराय वै॥ ३५॥
गोविन्दपद्मनाभाय वासुदेवाय भूभृते।
नमस्कृत्वा प्रवक्ष्यामि यत्तत्सिध्यतु मे वच(चः) ॥ ३६॥
त्रिविक्रमाय रामाय वैकुण्ठाय नराय च।
वाराहाय नृसिंहाय वामनाय महात्मने॥ ३७॥
हयग्रीवाय शुभ्राय हृषीकेश हराशुभम्।
परोपतापमहितं प्रयुक्तं चाभिचारिण(णा)म्॥ ३८॥
गरस्पर्शमहारोगप्रयोगं जरया जर।
नमोऽस्तु वासुदेवाय नमः कृष्णाय खङ्गिने॥ ३९॥
नमः पुष्करनेत्राय केशवायऽऽदिचक्रिणे।
नमः किञ्जल्कवर्णाय पीतनिर्मलवाससे॥ ४०॥
महादेववपुःस्कन्धधृष्टचक्राय चक्रिणे।
दंष्ट्रोद्धृतक्षितितलत्रिमूर्तिपतये नमः॥ ४१॥
महायज्ञवराहाय श्रीविष्णवे नमोऽस्तु ते।
तप्तहाटककेशान्तज्वलत्पावकलोचन॥ ४२॥
वज्राधिकनखस्पर्शदिव्यसिंह नमोऽस्तु ते।
कश्यपायातिह्रस्वाय ऋग्यजुःसामलक्षण॥ ४३॥
तुभ्यं वामनरूपाय क्रमते गां नमो नमः।
वाराहाशेषदुःखानि सर्वपापफलानि च॥ ४४॥
मर्द मर्द महादंष्ट्र मर्द मर्द च तत्फलम्।
नरसिंह करालास्यदन्तप्रान्त नखोज्ज्वल॥ ४५॥
भञ्ज भञ्ज निनादेन दुःखान्यस्याऽऽर्तिनाशन।
ऋग्यजुःसामभिर्वाग्भिः कामरूपधरादिधृक्॥ ४६॥
प्रशमं सर्वदुःखानि नय त्वस्य जनार्दन।
ऐकाहिकं व्द्याहिकं च तथा त्रिदिवसं ज्वरम्॥ ४७॥
चातुर्थिकं तथाऽनुग्रं तथा वै सततज्वरम्।
दोषोत्थं संनिपातोत्थं तथैवाऽऽगन्तुकज्वरम्॥ ४८॥
शमं नयतु गोविन्दो भित्त्वा छित्त्वाऽस्य वेदनम्।
नेत्रदुःखं शिरोदुःखं दुःखं तूदरसंभवम्॥ ४९॥
अनुच्छ्वासं महाश्वासं परितापं तु वेपथुम्।
गुदघ्राणाङ्घ्रिरोगांश्च कुष्ठरोगं तथा क्षयम्॥ ५०॥
कामलादींस्तथा रोगान्प्रमेहादींश्च दारुणान्।
ये वातप्रभवा रोगा लूताविस्फोटकादयः॥ ५१॥
ते सर्वे विलयं यान्तु वासुदेवापमार्जिताः।
विलयं यान्ति ते सर्वे विष्णोरुच्चारणेन वा॥ ५२॥
क्षयं गच्छन्तु चाशेषास्ते चक्राभिहता हरेः।
अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्॥ ५३॥
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।
स्थावरं जङ्गमं यच्च कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥ ५४॥
दन्तोद्भवं नखोद्भूतमाकाशप्रभवं च यत्।
भूतादिप्रभवं यच्च विषमत्यन्तदुःसहम्॥ ५५॥
शमं नयतु तत्सर्वं कीर्तितोस्य जनार्दनः।
ग्रहान्प्रेतग्रहांश्चैव तथाऽन्याञ्शाकिनीग्रहान्॥ ५६॥
मुखमण्डलकान्कूरान्रेवतीं वृद्धरेवतीम्।
वृद्धिकाख्यान्ग्रहांश्चोग्रांस्तथा मातृग्रहानपि॥ ५७॥
बालस्य विष्णोश्चरितं हन्ति बालग्रहानपि।
वृद्धानां ये ग्रहाः केचिद्बालानां चापि ये ग्रहाः॥ ५८॥
नृसिंहदर्शनादेव नश्यन्ते तत्क्षणादपि।
दंष्ट्राकरालवदनो नृसिंहो दैत्यभीषणः॥ ५९॥
तं दृष्ट्वा ते ग्रहाः सर्वे दूरं यान्ति विशेषतः।
नरसिंह महासिंह ज्वालामालोज्ज्वलानन॥ ६०॥
ग्रहानशेषान्सर्वेश नुद स्वास्यविलोचन।
ये रोगा ये महोत्पाता यद्विषं ये महाग्रहाः॥ ६१॥
यानि च क्रूरभूतानि ग्रहपीडाश्च दारुणाः।
शस्त्रक्षतेषु ये रोगा ज्वालागर्दभकादयः॥ ६२॥
विस्फोटकादयो ये च ग्रहा गात्रेषु संस्थिताः।
त्रैलोक्यरक्षाकर्तस्त्वं दुष्टदानववारण॥ ६३॥
सुदर्शनमहातेजश्छिन्धि च्छिन्धि महाज्वरम्।
छिन्धि वातं च लूतं च च्छिन्धि घोरं महाविषम्॥ ६४॥
उद्दण्डामरशूलं च विषज्वालासगर्दभम्।
ॐ ह्रांह्रांह्रूंह्रूं प्रधारेण कुठारेण हन द्विषः॥ ६५॥
ॐ नमो भगवते तुभ्यं दुःखदारणविग्रह।
यानि चान्यानि दुष्टानि प्राणिपीडाकराणि वै॥ ६६॥
तानि सर्वाणि सर्वात्मा परमात्मा जनार्दनः।
किंचिद्रूपं समास्थाय वासुदेव नमोऽस्तु ते॥ ६७॥
क्षिप्त्वा सुदर्शनं चक्रं ज्वालामालाविभीषणम्।
सर्वदुष्टोपशमनं कुरु देववराच्युत॥ ६८॥
सुदर्शन महाचक्र गोविन्दस्य वरायुध।
तीक्ष्णधार महावेग सूर्यकोटिसमद्युते॥ ६९॥
सुदर्शन महाज्वाल च्छिन्धि च्छिन्धि महारव।
सर्वदुःखानि रक्षांसि पापानि च विभीषण॥ ७०॥
दुरितं हन चाऽऽरोग्यं कुरु त्वं भोः सुदर्शन।
प्राच्यां चैव प्रतीच्यां च दक्षिणोत्तरतस्तथा॥ ७१॥
रक्षां करोतु विश्वात्मा नरसिंहः स्वगर्जितैः।
भूम्यन्तरिक्षे च तथा पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः॥ ७२॥
रक्षां करोतु भगवान्बहुरूपी जनार्दनः।
[तथा विष्णुमयं सर्वं सदेवासुरमानुषम्]॥ ७३॥
तेन सत्येन सकलं दुःखमस्य प्रणश्यतु।
यथा योगेश्वरो विष्णुः सर्ववेदेषु गीयते॥ ७४॥
तेन सत्येन सकलं दुःखमस्य प्रणश्यतु।
परमात्मा यथा विष्णुर्वेदाङ्गेषु च गीयते॥ ७५॥
तेन सत्येन विश्वात्मा सुखदस्तस्य केशवः।
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु प्रणाशं यातु चासुखम्॥ ७६॥
वासुदेवशरीरोत्थैः कुशैः संमार्जितं मया।
अपामार्जितगोविन्दो नरो नारायणस्तथा॥ ७७॥
तथाऽपि सर्वदुःखानां प्रशमो वचनाद्धरेः।
शान्ताः समस्तदोषास्ते ग्रहाः सर्वे विषाणि च।
भूतानि च प्रशाम्यन्ति संस्मृते मधुसूदने॥ ७८॥
एते कुशा विष्णुशरीरसंभवा जनार्दनोऽहं स्वयमेव चाग्रतः।
हतं मया दुःखमशेषमस्य वै स्वस्थो भवत्वेष वचो यथा हरेः॥ ७९॥
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु प्रणश्यत्वसुखं च यत्।
यदस्य दुरितं किंचित्क्षिप्तं तल्लवणाम्भसि॥ ८०॥
स्वास्थ्यमस्य सदैवास्तु हृषीकेशस्य कीर्तनात्।
यद्यतोऽत्र गतं पापं तत्तु तत्र प्रगच्छतु॥ ८१॥
एतद्रोगेषु पीडासु जन्तूनां हितमिच्छुभिः।
विष्णुभक्तैश्च कर्तव्यमपामार्जनकं परम्॥ ८२॥
अनेन सर्वदुःखानि विलयं यान्त्यशेषतः।
सर्वपापविशुद्ध्यर्थं विष्णोश्चैवापमार्जनात्॥ ८३॥
आर्द्रं शुष्कं लघु स्थूलं ब्रह्महत्यादिकं तु यत्।
तत्सर्वं नश्यते तूर्णं तमोवद्रविदर्शनात्॥ ८४॥
नश्यन्ति रोगा दोषाश्च सिंहात्क्षुद्रमृगा यथा।
ग्रहभूतपिशाचादि श्रवणादेव नश्यति॥ ८५॥
द्रव्यार्थं लोभपरमैर्न कर्तव्यं कदाचन।
कृतेऽपामार्जने किंचिन्न ग्राह्यं हितकाम्यया॥ ८६॥
निरपेक्षैः प्रकर्तव्यमादिमध्यान्तबोधकैः।
विष्णुभक्तैः सदा शान्तैरन्यथाऽसिद्धिदं भवेत्॥ ८७॥
अतुलेयं नृणां सिद्धिरियं रक्षा परा नृणाम्।
भेषजं परमं ह्येतद्विष्णोर्यदपमार्जनम्॥ ८८॥
उक्तं हि ब्रह्मणा पूर्वं पौ(पु)लस्त्याय सुताय वै।
एतत्पुलस्त्यमुनिना दालभ्यायोदितं स्वयम्॥ ८९॥
सर्वभूतहितार्थाय दालभ्येन प्रकाशितम्।
त्रैलोक्ये तदिदं विष्णोः समाप्तं चापमार्जनम्॥ ९०॥
तवाग्रे कथितं देवि यतो भक्ताऽसि मे सदा।
श्रुत्वा तु सर्वं भक्त्या च रोगान्दोषान्व्यपोहति॥ ९१॥
धन्वंतरी स्तोत्रं
धन्वंतरी को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशीको धन्वंतरी[4], चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।[5] इन्हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलशलिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।[6] इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।[7] सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।
आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।[7]भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।
विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।[8]
इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।[7] इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।
वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -
काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।
यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-
काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।
महिमा
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।[7] विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है -
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।
मंत्र
भगवाण धन्वंतरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:
ॐ धन्वंतरये नमः॥
इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है:
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
अमृतकलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥
ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृत कलश हस्ताय सर्व आमय
विनाशनाय त्रिलोक नाथाय श्री महाविष्णुवे नम: ||
अर्थात
परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।
धन्वंतरी स्तोत्रम
प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है।
ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥[1]
श्री कृष्ण स्तुती
स्तुति संग्रह
कस्तुरी तिलकम ललाटपटले,
वक्षस्थले कौस्तुभम ।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले,
वेणु करे कंकणम ।
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम,
कंठे च मुक्तावलि ।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते,
गोपाल चूडामणी ॥
श्रीशंकराचार्य द्वारा रचित श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्तोत्र
भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं,
स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम्।
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं,
अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम्॥१॥
भावार्थ–व्रजभूमि के एकमात्र आभूषण, समस्त पापों को नष्ट करने वाले तथा अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाले नन्दनन्दन को सदैव भजता हूँ, जिनके मस्तक पर मोरमुकुट है, हाथों में सुरीली बांसुरी है तथा जो प्रेम-तरंगों के सागर हैं, उन नटनागर श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,
विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम्।
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,
महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम्॥२॥
भावार्थ–कामदेव का मान मर्दन करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर चंचल नेत्रों वाले तथा व्रजगोपों का शोक हरने वाले कमलनयन भगवान को मेरा नमस्कार है, जिन्होंने अपने करकमलों पर गिरिराज को धारण किया था तथा जिनकी मुसकान और चितवन अति मनोहर है, देवराज इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं,
व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम्।
यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया,
युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम्॥३॥
भावार्थ–जिनके कानों में कदम्बपुष्पों के कुंडल हैं, जिनके अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं तथा व्रजबालाओं के जो एकमात्र प्राणाधार हैं, उन दुर्लभ भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ; जो गोपगण और नन्दजी के सहित अति प्रसन्न यशोदाजी से युक्त हैं और एकमात्र आनन्ददायक हैं, उन गोपनायक गोपाल को नमस्कार करता हूँ।
सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं,
दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम्।
समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं,
समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम्॥४॥
भावार्थ–जिन्होंने मेरे मनरूपी सरोवर में अपने चरणकमलों को स्थापित कर रखा है, उन अति सुन्दर अलकों वाले नन्दकुमार को नमस्कार करता हूँ तथा समस्त दोषों को दूर करने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले और समस्त व्रजगोपों के हृदय तथा नन्दजी की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।
भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं,
यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम्।
दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं,
दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम्॥५॥
भावार्थ–भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण सर्वदा दिव्य सखियोंसे सेवित, नित्य नए-नए प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है।
गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं,
सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं।
नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं,
नमामि मेघसुन्दरं तडित्प्रभालसत्पटम्।।६।।
भावार्थ–गुणों की खान और आनन्द के निधान कृपा करने वाले तथा कृपा पर कृपा करने के लिए तत्पर देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनन्दन को मेरा नमस्कार है। नवीन-गोप सखा नटवर नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली सदृश सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।
समस्त गोप मोहनं, हृदम्बुजैक मोदनं,
नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम्।
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं,
रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम्।।७।।
भावार्थ–समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुंज के बीच में विराजमान, प्रसन्नमन सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण अभिलिषित कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली में गीत गाने वाले, निकुंजनायक को मेरा नमस्कार है।
विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं,
नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम्।
किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं,
गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम्।।८।।
भावार्थ–चतुरगोपिकाओं की मनोज्ञ तल्प पर शयन करने वाले, कुंजवन में बढ़ी हुई विरह अग्नि को पान करने वाले, किशोरावस्था की कान्ति से सुशोभित अंग वाले, अंजन लगे सुन्दर नेत्रों वाले, गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त करने वाले, श्रीजी के साथ विहार करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।
स्तोत्र पाठ का फल
यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा,
मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम्।
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्,
भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान॥९॥
प्रभो! मेरे ऊपर ऐसी कृपा हो कि जहां-कहीं जैसी भी परिस्थिति में रहूँ, सदा आपकी सत्कथाओं का गान करूँ। जो पुरुष इन दोनों-राधा कृपाकटाक्ष व श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष अष्टकों का पाठ या जप करेगा, वह जन्म-जन्म में नन्दनन्दन श्यामसुन्दर की भक्ति से युक्त होगा और उसको साक्षात् श्रीकृष्ण मिलते हैं।
||अघोरकष्टोद्धारणस्तोत्रम||
श्रीपाद श्रीवल्लभ त्वं सदैव| श्री दत्तास्मान पाहि देवाधीदेव||
भावग्राह्य क्लेशहारिन सुकीर्ते| घोरात्कष्टादुद्धरास्मान्नमस्ते||
त्वं नो माता त्वं पिताप्तो दिपस्त्वं| त्रातायोगक्षेमकृसद्गुरुस्त्वम||
त्वं सर्वस्वं नो प्रभो विश्वमूर्ते| घोरात्कष्टादुद्धरास्मान्नमस्ते||
पापं तापं व्याधीमाधींच दैन्यम| भीतिं क्लेशं त्वं हरा$शुत्व दैन्यम||
त्रातारंनो वीक्ष इशास्त जूर्ते| घोरात्कष्टादुद्धरास्मान्नमस्ते||
नान्यस्त्राता नापि दाता न भर्ता| त्वत्तो देवं त्वं शरण्योकहर्ता|
कुर्वात्रेयानुग्रहं पुर्णराते| घोरात्कष्टादुद्धरास्मान्नमस्ते||
धर्मेप्रीतिं सन्मतिं देवभक्तिं| सत्संगाप्तिं देहि भुक्तिं च मुक्तिं
भावासक्तिंचाखिलानन्दमूर्ते| घोरात्कष्टादुद्धरास्मान्नमस्ते||
श्लोकपंचकमेतद्यो लोकमंगलवर्धनम|
प्रपठेन्नियतो भक्त्या स श्रीदत्तप्रियोभवेत||
||इति श्रीमत्वासुदेवानंदसरस्वतिविरचितं अघोरकष्टोद्धारणस्तोत्रम सम्पूर्णम||
अच्युताष्टकम्
अच्युताष्टकम् आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित सर्वश्रेष्ठ एवं कर्णप्रिय स्तुतियों में से एक है।
स्तोत्र
अच्युतं केशवं स्वामिनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम्।
श्रीधरं माधवं गोपीकावल्ल्भं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ॥१॥
अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम्।
इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं देवकीनंदनं नंदजं संदधे ॥२॥
विष्णवे जिष्णवे शंखिने चक्रिणे रुक्मिणीरागिणे जानकीजानये।
बल्लवीवल्लभायाऽर्चितायात्मने कंसविध्वंसिने वंशिने ते नम: ॥३॥
कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे।
अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज द्वारकानायक द्रोपदीरक्षक ॥४॥
राक्षसक्षोभित: सीतया शोभितो दण्डकारण्यभूपुण्यताकारण:।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरै: सेवितोऽगस्त्यसंपूजितो राघव: पातु मां ॥५॥
धेनुकारिष्टकोऽनिष्टकृद् द्वेषिणां केशिहा कंसह्रद्वंशिकावादक:।
पूतनाकोपक: सूरजाखेलनो बालगोपालक: पातु मां सर्वदा ॥६॥
विद्युदुद्योतवान् प्रस्फुरद्वाससं प्रावृडम्भोदवत् प्रोल्लसद्विग्रहम्।
वन्यया मालया शोभितोरस्थलं लोहितांघ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ॥७॥
कुंचितै: कुन्तलैर्भ्राजमानाननं रत्नमौलिं लसत् कुंडलं गण्डयो:।
हारकेयूरकं कंकणप्रोज्ज्वलं किंकिणीमंजुलं श्यामलं तं भजे ॥८॥
अच्युतस्याष्टकं य: पठेदिष्टदं प्रेमत: प्रत्यहं पूरुष: सस्पृहम्।
वृत्तत: सुन्दरं कर्तृविश्वम्भरं तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरं ॥९॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं अच्युताष्टकं संपूर्णं ॥
वेङ्कटेश स्तोत्रम् :-
Shri Venkatesh strotram :-
॥अथ वेङ्कटेश स्तोत्रम्॥
कमला कुच चूचुक कुङ्कुमतो
नियतारुणितातुल नीलतनो।
कमलायतलोचन लोकपते
विजयी भव वेङ्कटशैलपते ||१||
सचतुर्मुखषण्मुखपञ्चमुख
प्रमुखाखिलदैवतमौलिमणे।
शरणागतवत्सल सारनिधे
परिपालय मां वृषशैलपते ||२||
अतिवेलतया तव दुर्विषहैः
अनुवेलकृतैरपराधशतैः।
भरितं त्वरितं वृषशैलपते
परया कृपया परिपाहि हरे ||३||
अधिवेङ्कटशैलमुदारमते
जनताभिमताधिकदानरतात्।
परदेवतया गदितान्निगमैः
कमलादयितान्न परं कलये ||४||
कलवेणुरवावशगोपवधू
शतकोटिवृतात्स्मरकोटिसमात्।
प्रतिवल्लविकाभिमतात्सुखदात्
वसुदेवसुतान्न परं कलये ||५||
अभिरामगुणाकर दाशरथे
जगदेकधनुर्धर धीरमते।
रघुनायक राम रमेश विभो
वरदोभव देव दयाजलधे ||६||
अवनीतनयाकमनीयकरं
रजनीकरचारुमुखाम्बुरुहं।
रजनीचरराजतमोमिहिरं
महनीयमहं रघुराम मये ||७||
सुमुखं सुहृदं सुलभं सुखदं
स्वनुजं च सुखायममोघशरं।
अपहाय रघूद्वहमन्यमहं
न कथञ्चन कञ्चन जातु भजे ||८||
विना वेङ्कटेशं न नाथो नाथः
सदा वेङ्कटेशं स्मरामि स्मरामि।
हरे वेङ्कटेश प्रसीद प्रसीद
प्रियं वेङ्कटेश प्रयच्छ प्रयच्छ ||९||
अहं दूरतस्ते पदाम्भोजयुग्म
प्रणामेच्छयाऽऽगत्य सेवां करोमि।
सकृत्सेवया नित्यसेवाफलं त्वं
प्रयच्छ प्रयच्छ प्रभो वेङ्कटेश ||१०||
अज्ञानिना मया दोषान्
अशेषान्विहितान् हरे।
क्षमस्व त्वं क्षमस्व त्वं
शेषशैल शिखामणे ||
॥इति वेङ्कटेश स्तोत्रम्॥
दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्
स्त्रोत्र संग्रह
मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं
वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणौः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥
बीजस्याऽन्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्गनिर्विकल्पं पुनः
मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥
नानाच्छिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभा भास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा वहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणो
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रयाभद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशु पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्
नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥
सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ॥१०॥
श्री मधुराष्टकम्
स्तुति संग्रह
धरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥२॥
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः, पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥ भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके गीत मधुर हैं, आपका पीताम्बर मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥४॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥५॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥५॥
गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥६॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी गर्दन मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥६॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥७॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपकी गोपियाँ मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥७॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥८॥
भावार्थ : हे भगवान श्रीकृष्ण! आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के राजेश्वर श्रीकृष्ण आपका सभी प्रकार से मधुर है ॥८॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् ।
हरिहर स्तोत्र
हरि” का अर्थ विष्णु भगवान जी से है और “हर” का अर्थ शिव से है. इस स्तोत्र में दोनों का वर्णन किया गया है.
गोविन्दमाधवमुकुन्दहरेमुरारे ! शंभो ! शिवेश ! शशिशेखर ! शूलपाणे !
दामोदराच्युत ! जनार्दन ! वासुदेव ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।1।।
गंगाधरान्धकरिपो ! हर ! नीलकंठ ! वैकुंठ ! कैटभरिपो ! कमठाब्जपाणे !
भूतेश ! खण्डपरशो ! मृड ! चण्डिकेश ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।2।।
विष्णो ! नृसिंह ! मधुसूदन ! चक्रपाणे ! गौरीपते ! गिरिश ! शंकर ! चन्द्रचूड !
नारायणासुरनिबर्हण ! शांर्गपाणे ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।3।।
मृत्युंजयोग्रविषमेक्षण ! कामशत्रो ! श्रीकान्त ! पीतवसनाम्बुदनीलशौरे !
ईशान ! कृत्तिवसन ! त्रिदशैकनाथ ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।4।।
लक्ष्मीपते ! मधुरिपो ! पुरुषोत्तमाद्य ! श्रीकंठ ! दिग्वसन ! शांतपिनाकपाणे !
आनंंदकंद ! धरणीधर ! पद्मनाभ ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।5।।
सर्वेश्वर ! त्रिपुरसूदन ! देवदेव ! ब्रह्मण्यदेव ! गरुड़ध्वज ! शंखपाणे !
त्र्यक्षोरगाभरणबालमृगांकमौले ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।6।।
श्रीरामराघवरमेश्वर ! रावणारे ! भूतेश ! मन्मथरिपो ! प्रमथाधिनाथ !
चाणूरमर्दनहृषीकपते ! मुरारे ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।7।।
शूलिन ! गिरिश ! रजनीशकलावंतस ! कंसप्रणासन ! सनातन ! केशिनाश !
भर्ग ! त्रिनेत्र ! भव ! भूतपते ! पुरारे ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।8।।
गोपीपते ! यदुपते ! वसुदेवसूनो ! कर्पूरगौर ! वृषभध्वज ! भालनेत्र !
गोवर्द्धनोद्धरण ! धर्मधुरीण ! गोप ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।9।।
स्थाणो ! त्रिलोचन ! पिनाकधर ! स्मरारे ! कृष्णानिरुद्ध ! कमलाकर ! कल्मषारे !
विश्वेश्वर ! त्रिपथगार्द्रजटाकलाप ! त्याज्या भटा य इति सन्ततमामनन्ति ।।10।।
अष्टोत्तराधिकशतेन सुचारुनाम्नां संदर्भितां ललितरत्नकदम्बकेन ।
सन्नायकां दृढगुणां द्विजकंठगां य:कुर्यादिमां स्रजमहो स यमं न पश्येत ।
इत्थं द्विजेन्द्रनिजभृत्यगणान सदैवसंशिक्षयेदवनिगान्सहि धर्मराज: ।
अन्येsपिे ये हरिहरांकधराधरायां ते दूरत:पुनरहो परिपर्जनीया: ।।
अगस्तिउवाच
यो धर्मराजरचितां ललितप्रबन्धां नामावलीं सकलकल्मषबीजहन्त्रीम ।
धीरोsत्र कौस्तुभभृत: शशिभूषणस्य नित्यं जपेत्स्तनरसं स पिबेन्न मातु : ।।
इति श्रृण्वन्कथां रम्यां शिवशर्मा प्रियेsनघाम ।
प्रहृष्टवक्त्र: पुरतो ददर्शाप्सरसां पुरीम ।।
श्री हरिहराष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम समाप्तम
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